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जातीयता, धनबल, बहुबल, आरक्षण के सहारे चलने वाली यूपी की राजनीति और इसे चलाने वाली राजनीतिक पर्टियां इस बार के विधानसभा चुनावों में भंवर में फंसती हुई दिखाई दे रही हैं। उत्तर प्रदेश के सियासी दंगल में किसी भी राजनीतिक दल को इस बात का अनुमान लगाना कठिन हो रहा है कि कौन किसको चित कर देगा, लेकिन हर दल यह कोशिश जरुर कर रहा है कि उसका दांव कामयाब रहे।
राजनीतिक पर्टियों को अपनी ही दिशा धारा ज्ञात न होने के पीछे सबसे बड़ा कारण रहा बड़े मुद्दे की कमी। एक ऐसे चुनावी मुद्दे की कमी जो जनता को सीधे किसी पार्टी विशेष से जोड़ देता और यूपी की राजनीति का भविष्य तय करने में कारगर साबित होता। हमारे समाने बिहार था जहां नीतिश कुमार ने विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ा और आज वह बिहार की जनता के सबसे बड़े हिमायती बनकर उभरे हैं, लेकिन यूपी की किसी भी राजनीतिक पार्टी को यह समझ नहीं आया कि आज की जनता केवल और केवल विकास की हिमायती है।
विकास के मुद्दे पर हर पार्टी चुप्पी साधे दिखाई देती है। हर किसी ने जातिगत समीकरणों में मतदाताओं को उलझने की कोशिश की स्थिति यहां तक नियंत्रण से बाहर हो गई कि केन्द्र की सत्ताधारी पार्टी को दो मंत्रियों ने लगातार कई दिनों तक चुनाव की आयोग आचार संहिता की धज्जियां उड़ाई। लैपटापी वादों पर सवार यूपी की राजनीतिक पर्टियों को यह समझ नहीं आया कि वर्तमान का जागरूक मतदाता बदलाव चाहता है। ऐसा पिछले विधानसभा चुनावों में भी हुआ था, जब विकास की बाट जोहने वाली जनता ने बसपा पर भरोसा जताया था। इस बार भी कुछ ऐसे ही समीकरण समाने आ रहे हैं। यूपी विधानसभा चुनाव अपने आखिरी चरण की ओर बढ़ रहा है। सिर्फ दो चरणों के बाद 6 मार्च को सभी पर्टियों के भविष्य का पिटारा खुलेगा। मतदाताओं ने विगत सभी चरणों में खासा उत्साह दिखाया और सभी रिकार्ड ध्वस्त करते हुए भरपूर मतदान किया। लेकिन कोई भी पार्टी मतदाताओं की मुट्ठी खुलवाने में नाकाम रही। यही कारण है कि अभी तक यह अनुमान लगाना कठिन है कि कौन बनेगा यूपी का सरताज। माया, मुलायम, या कोई और।
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