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यूपी में राजनीतिक उठा-पटक का दौर

विमर्श : नए दौर का
विमर्श : नए दौर का
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कई बार ऐसा लगता तो है कि राजनीति की लीक बदल रही है, ऐसा नहीं होता और हर बार की भांति राजनीति अपने पुराने तेवर अख्तियार करती है, जहां जाति इसके रोम-रोम में बसी हुई प्रतीति होती है। यूपी की राजनीति में भी जातिवाद और अवसरवादिता का मिला-जुला रूप है, परंतु यह क्या गुल खिलोयगा इस पर अभी संशय बरकरार है। यह वही यूपी है, जहां बसपा की सोशल इंजीनियरिंग फेल हो जाती, सपा का समाजवाद भी चारों खाने चित्त होता है और बाबरी विध्वंस के बाद बीजेपी की राजनीति चमकती भी है।
इन सबके बीच एक बहस यह भी होती है कि मतदाता जागरूक हो चुका है, शायद उसे ठगने का दौर शायद अब समाप्त हो चुका है। ऐसे में किस पार्टी पर मतदाताओं का भरोसा ज्यादा होता है, यह तो आने वाला चुनाव तय करेगा। हां यह सच है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से केन्द्र की राजनीति में महती भूमिका वाले राज्य उत्तर प्रदेश का राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठेगा यह अभी संशय का विषय है। परंतु भ्रष्टाचार, अनाचार और दुराचार की मार से आहत जनता के सामने एक बार फिर कोई विकल्प नज़र नहीं आ रहा।
2012 में उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों ने पूरे देश को चौंका दिया। राहुल की चुनावी सभायें, मायावती की सोशल इंजीनियरिंग और गठबंधन की सरकार के कयासों पर पानी फेरते हुए, साइकिल पर सवार चुनावी एबीसी सीख रहे सपा के अध्यक्ष अखिलेश ने सत्ता तक का सफर तय किया। राजनीति के जानकार जिसे राजनीति क्षेत्र का बच्चा मानते बैठे थे, वही बच्चा महानायक बनकर समाने आया। इस तरह यूपी के डंवाडोल राजनीति को एक युवा और राज्य का सबसे कम उम्र का राजा मिला। गठबंधन ने होने की वजह से खींचतान की भी गुजांइश खत्म ही हो गई थी। लेकिन युवा अखिलेश के लिए यह ताज बहुत ही चुनौतियों भरा रहा। जिसमें फूल कम कांटे ज्यादा नजर आए। इसमें सबसे बड़ा कांटा रहा सपा पर लगा गुंडा पार्टी का काला धब्बा, जिसे अखिलेश ने कुछ हद तक मिटाने की कोशिश की लेकिन सफल न हो सके। हाल ही में पारिवारिक पार्टी में खुलकर सामने आए मतभेदों के पीछे भी यह एक कारण रहा। दूसरी चुनौती थी कानून व्यवस्था को कायम रखने की। इसमें भी अखिलेश असफल ही नज़र आए क्योंकि सरकार में एक से अधिक लोग मुख्यमंत्री की भूमिका में जो थे। हांलाकि चुनावी वादों को पूरा करने में अखिलेश ने बाखूबी प्रयास किया, वह इसमें सफल भी हुए। लेकिन वह पारिवारिक कलह से हार गए। हालांकि हाल ही में पारिवारिक कलह के समय अखिलेश के पास एक मौका बना था, खुद को साबित करने का, वह भी अब खो चुका है।
इस बार चुनाव में लगभग 83 करोड़ मतदाता हैं भाग लेंगे। जो पिछले चुनाव की तुलना में लगभग 10 करोड़ ज्यादा हैं। प्रत्याशियों की घोषणा भी कुछ दिनों में प्रारंभ हो जायेगी। मसलन अभी की स्थिति यह है कि वंशवाद का कोई नाम नहीं ले रहा, अपराधीकरण पर भी सबकी बोलती बंद है। भ्रष्टाचार पर कोई बात ही नहीं हो रही। भाजपा राष्टवाद के सहारे वोट बैंक बढ़ा रही है। सपा की कलह सबके सामने है, फिर भी स्मार्टफोन पॉलिटिक्स और अखिलेश की छवि की सहारे वह अपने वोट को बचा रही है। ऐसा लगता है सपा की यह कलह वंशवाद के तमगे को मिटाने के लिए हुई थी। बसपा के पास इस बार कोई ठोस मुदृा नज़र नहीं आ रहा। कांग्रेस खाट सभा के माध्यम से घर—घर पहुंचने का प्रयास कर रही है। सबकुछ मतदाताओं के रिझाने के लिए हो रहा है।
यूपी को देश की राजनीतिक जान है। यहां किसी पार्टी की कामयाबी का मतलब होता है, केंद्र की राजनीति में मजूबत दखलंदाजी। इसीलिए आगामी 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की चारों बड़ी पर्टियों भाजपा, बसपा, सपा और कांग्रेस यहां एड़ी से चोटी का जोर लगा रही हैं। यह चुनाव देश की राजनीति में अहम भूमिका निभाता है। यहां उठाती सियासी गर्म हवाओं की तपन दिल्ली तक महसूस की जाती है। उत्तर प्रदेश की राजनीति ने कई उतार चढ़ाव देखे हैं। हरित क्रांति के बाद क्षेत्रीय पर्टियों की जमीन तैयार हुई और जनता के समक्ष विकल्पों की भरमार हो गई। इन्हीं विकल्पों में अपना सच्चा हितैषी तलाशते-तलाशते जनता ने अपना अस्तित्व खो सा दिया। चंद लोगों के जनाधार के सहारे सरकारें बनी और उन्होंने प्रदेश को जमकर लूटा। यहां हर पार्टी ने अपने पैर जमाने के लिए नए-नए पैंतरे अपनाए। किसी ने जातिवाद का सहारा लिया, किसी ने हिन्दुत्व का तो किसी ने सोशल इंजीनियरिंग, तो कोई समाजवाद और अल्पसंख्यक राजनीति के सहारे सत्ता तक पहुंचने का रास्ता बनाने लगा। परंतु जो भी आया बस अपना पेट भरकर चला गया। जनता बेचारी, न तो इधर की रही, न उधर की।

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